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थूं बोल तो सरी, जुबान खोल तो सरी

बुद्धिजीवियों को आमन्त्रण
अभिनव राजस्थान में बुद्धिजीवी वर्ग केन्द्रीय भूमिका में रहेगा। ऐसे में इस वर्ग की वर्तमान स्थिति और भविष्य में भूमिका पर चिंतन आवश्यक है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस वर्ग की सक्रियता के बगैर कोई भी राज्य या देश विकास के पथ पर नहीं चल पायेगा। भले ही काग़ज़ों में विकास के नकली चित्र बना लिये जायें, असली और स्थायी विकास नहीं हो पायेगा। एक हजार वर्षों पहले भारत समृद्ध था, तो बुद्धिजीवियों के भरोसे था। बाद में समृद्धि का स्तर गिरता गया, उसके मूल में भी बुद्धिजीवी की निष्क्रियता थी। देश को गुलामी के लम्बे दौर में बुद्धिजीवी ने ही धकेला था और आजादी (सत्ता हस्तान्तरण) के बार फिर भ्रमित और अराजक अवस्था में भारत को छोड़ने वाले भी बुद्धिजीवी ही हैं। बुद्धिजीवी की निष्क्रियता, पर सवाल उठाया जा सकता है, परन्तु उनकी भूमिका के महत्व पर नहीं।
व्यवस्था निर्माण, परिवर्तन, संचालन कवि कानदान कल्पित की इन पंक्तियों ने ही अकस्मात हमारी अभिनव राजस्थान की अवधारणा के केन्द्र में बुद्धिजीवी को खड़ा कर दिया था।
देश देखभाल की, इण बार रे रूखाल री।
झूठी तो गुंजाश बिना, साख क्यूं भरी।
थूं बोल तो सरी, जुबान खोल तो सरी।

वास्तव में प्रदेश-देश की वर्तमान दशा के लिए बुद्धिजीवी ही जिम्मेदार हैं। लेकिन ऊपर से यह भी सत्य है कि दशा सुधरेगी, तो भी बुद्धिजीवी के सहारे ही सुधरेगी। हमारे चिंतन और शोध में यही निष्कर्ष निकला है। राजनेता, अफसर, जज और मीडिया भले ही व्यवस्था बदल देने की चेष्टाएँ, प्रयास, छलावे या उछलकूद करते हों, व्यवस्था में सुधार उनके बस में नहीं है। क्यों? क्योंकि समाज के विकसित होने के अपने नियम होते हैं, जो शाश्वत होते हैं। किसी भी काल युग में ये ही नियम मानवीय व्यवस्थाओं पर लागू होते हैं। इन नियमों की अवहेलना कर आप भ्रम तो पैदा कर सकते हैं, परन्तु जल्दी ही पोल खुल जाया करती है। ये नियम इस प्रकार हैं। बुद्धिजीवी वर्ग, युगानुसार व्यवस्था में परिवर्तन कर चिंतन करता है। किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले अपनी धारणा के पक्ष में जन समर्थन जुटाता है। जनता को परिवर्तन के लिए तैयार करता है। तब समाज की अनुशंसा पर राजनेता, नये कानून या नियम बनाता है, जिन्हें प्रशासक लागू करते हैं। न्यायाधीशों का काम इन नियमों के पालन को मूल भावना से जोड़े रखना होता है, ताकि क़ानूनों का अनर्थ न किया जा सके। प्रचार तंत्र का कार्य जनता को वस्तुस्थिति बताते रहना और सजग करते रहना है, ताकि समाज अपने नियमों की पालना को देखता रहे। इसीलिए मीडिया को समाज का आईना कहते हैं। अब अगर ये भूमिकाएँ अदला बदली हो जायें, तो क्या होगा? वही, जो वर्तमान भारत में हो रहा है। राजनेता नियम बनाना छोड़ उनकी पालना में रुचि अधिक ले रहे हैं। संसद-विधान भवन छोड़कर वे स्थानान्तरणों और कार्यपालन परध्यानलगाये बैठे हैं। अफसर नीतियाँ बना रहे हैं। जबकि जनता के प्रतिनिधियों को यह कार्य करना होता है। नीति बनाने वाले तो पालन करवा रहे हैं और पालन करवाने वाले नीति बना रहे हैं। वहीं दूसरी और जज भी नीतियों के पालन में रुचि लेने लगे हैं। यानि न्यायपालिका, कार्यपालिका की जिम्मेदारी ले रही है। सांसदों, विधायकों और अफ़सरों की अक्षमता का फायदा जज उठाने में आगे आने लगे हैं। बस यही करते-करते उनके भी पाँव इस दल-दल में फंस गये हैं। मीडिया का भी आईना धुंधला हो गया है। अब उसमें समाज का असली चेहरा नहीं दिखाई देता है। वर्तमान बुद्धिजीवी लेकिन हमारा प्यारा बुद्धिजीवी इस पूरे दृश्य में कहाँ ओझल हो गया है? क्या वह समाज के लिए सकारात्मक चिंतन कर रहा है। शायद नहीं। वह तो व्यवस्था की आलोचना को अपना धर्म और कर्म मान बैठा है। जबकि व्यवस्था में गड़बड़ होने पर तो सबसे अधिक शर्म उसे ही आनी चाहिये। यह तो उसी की कमजोरी है। व्यवस्था ठीक से चले और जब ऐसा न हो पाये, तो उसमें समयानुसार परिवर्तन हों, यह जिम्मेदारी प्रत्येक युग में बुद्धिजीवी की ही रही है। राम, कृष्ण, चाणक्य, बुद्ध, महावीर, दयानन्द, विवेकानंद, अरविंद, गांधी, सुभाष, लोहिया व जयप्रकाश नारायण की बौद्धिक परम्परा तो यही कहती है। यहाँ पर यह जरूरी हो जाता है कि हम बुद्धिजीवी को परिभाषित कर लें। वरन् हम यूं ही चार लाइनें लिखने या बोलने वाले आलोचकों को ही बुद्धिजीवी समझकर फिर गलती कर बैठेंगे। बुद्धिजीवी या इंटेलेक्च्युअल, वह होता है, जो अपनी बुद्धि (विचार व तर्क) के आधार पर जीता है, न कि पद के आधार पर। अपनी बुद्धि का उपयोग कर बुद्धिजीवी व्यवस्था के संचालन एवं व्यवस्था में परिवर्तन के लिए आवश्यक वातावरण बना देता है। उसकी दिशा सकारात्मक होती है, न कि नकारात्मक। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता है, तो बुद्धिजीवी नहीं है। केवल नाकारा आलोचक हैं, चार लाईनों को जोड़ने में, बोलने में सिद्धहस्त तुक्केबाज है। बुद्धिजीवी बीच बाजार में खड़े होकर अपनी बात कहता है, निर्भयता से दृढ़ता से कहता है, घर में बैठकर चिंताएँ नहीं करता है। वह समाज के नियंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करता है, बल्कि समाज की आवश्यकताओं को समझकर मैदान में उतर जाता है। बुद्धिजीवी अपनी असफलताओं या अक्षमताओं के लिए दूसरों पर आक्षेप नहीं करता है, बहाने नहीं मारता है। वह विश्लेषणकरता है और पुन: आगे बढ़ता है। वह जनता को उदासीन या नासमझ कहकर अपनी कमजोरी नहीं छुपाता है, बल्कि जनता को जगाने के लिए अपने बौद्धिक कौशल का उपयोग करता है। बुद्धिजीवी स्वाभिमानी होता है, परन्तु अहंकारी नहीं होता है। वह भीड़ के पीछे नहीं भागता है और न ही भीड़ से घबराता है। वह भीड़ को जनशक्ति में बदलकर उसकी दिशा बदलने का मादा रखता है। क्या ये शब्द कठोर नहीं है? बिल्कुल नहीं। यह शब्दावली यहाँ आवश्यक हैं, ताकि हमारा बुद्धिजीवी अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार हो जाये, जिसकी आज परम आवश्यकता है। जब हम कुलदीप नैयर, इंदर मल्होत्रा, गुलाब कोठारी या चैनलों पर बहसकरते महारथियों से यह सुनते हैं कि पता नहीं क्यों देश की जनता विरोध क्यों नहीं करती है, तो तरस आता है। ये लोग जनता से कितने दूर हैं। इतने वर्षों में यह भी नहीं जान पाये कि जनता ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है। अगर वे जनता से सक्रियता की उम्मीद करते हैं, तो उन्हें कैसा वातावरण बनाना होगा, इसका अहसास उन्हें क्यों नहीं है?
मगर ऐसा करने के लिए हिम्मत चाहिये, साफ दिल चाहिये, गहन व्यावहारिक अध्ययन चाहिये, जनता से जुड़ाव चाहिये, कुछ खोने की, कुछ देने की भावना चाहिये। तभी ये बुद्धिजीवी जब बोलेंगे, लिखेंगे तो जनमानस के दिल तक उतरेंगे। तभी सुभाष, तिलक, विजय सिंह पथिक, अर्जुन लाल सेठी या जयनारायण व्यास के रूप में अवतरित होंगे। वरन् 60 वर्षों से स्याही का नुकसान करते, और हमारे कानों के परदे फाड़ते इन तर्कशास्त्रियोंसे तो गायें चराते चरवाहे ही बेहतर हैं, जो अपने सीमित ज्ञान से गायें तो चरा लेते हैं।
क्या करे बुद्धिजीवी ? वास्तव में अगर बुद्धिजीवी वर्ग अपनी निष्क्रियता तोड़ दे, तो भारत में चमत्कार हो सकता है। हमारे कवियों को अब पाकिस्तान, नेताओं या पुलिस या फूहड़ व्यंग्य से आगे बढ़कर प्रदेश की योजनाओं, किसानों, कुटीर उद्योगों व सामाजिक सुधारों के आर्थिक महत्व पर बोलना चाहिए। जब उनकी भावनाएँ विकास के प्रति समर्पित होने लगेंगी, तो गजब का असर दिखाई पड़ेगा। मज़दूरों, किसानों या छात्रों को जब लगेगा कि ये कवि उनकी चिंता में गा रहे हैं, तो वे जुटने लगेंगे। वरन् वे आजकल कवियों को भी मसखरा ही समझते हैं। कन्हैयालाल सेठिया की कविताएँ कैसे बच्चे-बच्चे की ज़बान पर थीं। लेखकों व पत्रकारों को भी अपनी दुनिया से बाहर निकलकर यथार्थ के धरातल पर आना होगा। अपने लेखों की धारा आलोचना से मोड़कर सकारात्मकता की तरफ मोड़नी होगी। उन्हें भविष्य की रूपरेखा को कागज पर उतारना होगा। व्यवस्था की कमियां को इंगित करने के साथ ही वैकल्पिक व्यवस्था सुझानी होगी। विकल्प भी व्यावहारिक बताना होगा, जो आसानी से समझ आ जाये, जिसे आसानी से लागू किया जा सके। चित्रकारों को अपने ब्रुश विकास के रंग में रंगने होंगे। तभी वे चित्र बना पायेंगे, जो हम भविष्य में देखना चाहेंगे। केवल प्रदर्शनियों के भरोसे न रहकर जनता को आंदोलित करने वाले चित्र बनाने होंगे। अपनी रचनात्मकता के बोध से भविष्य की तस्वीर खींचनी होगी। तब जनता की रुचि इनमें जगेगी। वरन् चन्द फैशनेबल और दिखावा करते प्रशंसकों के भरोसे उनकी कला मर जायेगी। चित्र केवल देखा नहीं जाना चाहिये, महसूस किया जाना चाहिये, उसमें से संदेश प्रवाहित होना चाहिये। अभिनव राजस्थान में चित्रकार प्रत्येक विषय को रुचिकर एवं सारगर्भित बनाने में मदद कर सकते हैं। संगीतकारों को हीनता से बाहर निकालना चाहिये। ऐसा नहीं है कि अच्छे संगीत को अब पसन्द नहीं किया जाता। हाँ, आपने अच्छा मान रखा है, मगर वह रुचिकर नहीं बन पाया है, तो आप इसे सुधारें। आम जनता से दूर भागकर संगीत की साधना नहीं हो पायेगी। पैसा जरूरी है, मगर केवल पैसे के लिए संगीत रचने वालों की आत्मा से संगीत दफा हो जायेगा। राजस्थान के कण-कण को, प्रत्येक मन को अभी भी माटी की महक से सराबोर संगीत चाहिये। कोशिश हो कि वह झंकार फिर पैदा हो जाये।
प्रदेश के चिकित्सकों, वकीलों, अभियन्ताओं, अध्यापकों, प्रोफेसरों, चिन्तकों आदि को भी समाज व प्रदेश को सम्भालने के लिए आगे आना चाहिये। किसी और से चमत्कार की अपेक्षा में बैठे रहना या किसी के अवतार लेने की उम्मीद में हम एक हजार वर्ष खराब कर चुके हैं। आजादी के बाद भी जब हमें नीतियाँ बनाने की छूट मिली थी, तब भी हमने इस पर ध्यान नहीं दिया था। समाज को हमने राजनेताओं व सामान्य ज्ञान रखने वाले अफ़सरों के भरोसे छोड़कर अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ा है। ऐसे समाज में जड़ता ही आयेगी, विकास के बीज वहाँ पौधे नहीं बन पायेंगे। तो बुद्धिजीवी मित्रों को अपने रंग में आना ही होगा। कब तक वे कैमरे के सामने या मंच पर आने से बचते रहेंगे। उन्हें वास्तविक विकास के लिए सकारात्मक वातावरण बनाना है। बिना किसी नियन्त्रण की प्रतीक्षा के आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेनी है। नियंत्रण चाहिये ही, तो अभिनव राजस्थान उन्हें सहर्ष, ससम्मान नियंत्रित करता है।
वातावरण बदलना – प्रमुख लक्ष्यी सारा खेल वातावरण का ही है। देश आजाद होने के बाद कई लोगों ने ऐसे वातावरण बनाये भी हैं। नेहरू ने अपन पक्ष में वातावरण बनाया था और खुद को अँग्रेज़ों का विकल्प बनाकर पेश किया था। यह स्वार्थ पूर्ण प्रयास था। जबकि शास्त्री ने जय जवान-जय किसान के नारे से जनता का विश्वास बढ़ाया था। यह प्रयास निःस्वार्थ और सकारात्मक था। फिर इंदिरा ने गरीबी हटाने के नाम पर जनता को ठगने का वातावरण बनाया था। जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति के नाम पर जनता को फिर आस बंधायी थी।

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नाम : डॉ. अशोक चौधरी पता : सी-14, गाँधी नगर, मेडता सिटी , जिला – नागौर (राजस्थान) फोन नम्बर : +91-94141-18995 ईमेल : ashokakeli@gmail.com

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2 comments

  1. aaj buddijivi bola hai, desh ki rajneeti ki disha badli hai, ab dasha bhi badlegi.

  2. bharat vishav shakti banega 2020 tak. vishav shakti parmanu bum se ya dhan ke bal se nahi balki vichar shakti se vishav guru banke bharat dunia ka netratav karega.

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