Home / अभिनव उद्योग / राजस्थान का मरुस्थल (धरती धोरां री)

राजस्थान का मरुस्थल (धरती धोरां री)

राजस्थान सामान्य ज्ञान शृंखला

प्रदेश की सतह पर, विशेष रूप से अरावली के पश्चिम में, एक विशिष्ट प्रकार की संरचना आपको दिखाई देगी, जो रेत के फैलाव के कारण बनी है. रेत यानि ‘मरू’ या मरी हुई मिट्टी. ऐसी मिट्टी जिसमें ऐसे उपजाऊ तत्वों की कमी हो, जो चावल और गेहूं के अधिक उत्पादन के लिए आवश्यक हैं. हालांकि यह संकल्पना भी मैदानी क्षेत्रों के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभुत्व से उपजी है. क्योंकि यही ‘मरू’ बाजरे और मोठ के उत्पादन के लिए वरदान बन जाती है. और बाजरा व मोठ किसी भी तरह से कम पौष्टिक आहार नहीं हैं, बल्कि बाजरा चावल व गेहूं से अधिक स्वास्थ्यवर्धक खाद्यान हैं. फिर भी प्रचलित भाषा में मरू के विस्तार को, फैलाव को ‘मरुस्थल’ कहा जाता है.

दुनिया के मरुस्थल
दुनियां के कई हिस्सों में मरुस्थल पाए जाते हैं. तकनीकी परिभाषा के अनुसार मरुस्थल वह भू-भाग है, जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत २५ सेमी से कम रहता है और सापेक्षिक आद्रर्ता या हवा में नमी निम्न स्तर पर रहती है. ऐसे स्थान या मरुस्थल, पृथ्वी की सतह के ३५ प्रतिशत हिस्से को घेरे हुए हैं. ऐसा नहीं है कि हमारे राजस्थान में ही मरुस्थल है. आप आश्चर्य करेंगे कि दुनिया की सतह का एक तिहाई भाग मरुस्थल है ! एशिया और अफ्रीका में तो यह जमीन के ७० प्रतिशत भाग पर फैले हैं. इन मरुस्थलों को आप प्रायः कर्क या मकर रेखा के आसपास देख सकते हैं. अफ्रीकी महाद्वीप में ये सर्वाधिक क्षेत्र में हैं, जबकि यूरोप में इनका क्षेत्रफल सबसे कम है. सहारा (अफ्रीका) सबसे बड़ा मरुस्थलीय क्षेत्र है. इसके बाद क्षेत्र के अनुसार क्रमशः ऑस्ट्रेल्याई, अरबी और गोबी (मंगोलिया-चीन) का स्थान है. हमारे मरुस्थल को ‘थार’ के नाम से विश्व में जाना जाता है और क्षेत्रफल की दृष्टि से इसका स्थान विश्व में नौवां है.
अपना ‘थार’ और उसका विस्तार
थार मरुस्थल भारत और पाकिस्तान के सीमावर्ती हिस्सों की पहचान है. थार के उत्तर में सतलुज, पूर्व में अरावली पर्वतमाला, दक्षिण में कच्छ का रण और पश्चिम में सिंधु नदी है. इस प्रकार पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रान्तों और भारत के गुजरात, राजस्थान, पंजाब और हरियाणा प्रान्तों में थार की उपस्थिति है. आंकड़ों के जाल में उतर कर देखेंगे, तो पायेंगे कि थार के कुल ४,४६,००० वर्ग किमी क्षेत्रफल में से भारत में लगभग २,७८,००० वर्ग किमी (६२ प्रतिशत) भाग है. भारत के २,७८,००० वर्ग किमी क्षेत्र में से राजस्थान में २,०९,१४२ वर्ग किमी(७५ प्रतिशत) या तीन-चौथाई भाग है, जबकि गुजरात में २० और हरियाणा-पंजाब में ५ प्रतिशत भाग है. राजस्थान के कुल क्षेत्रफल, ३,४२,२३९ वर्ग किमी के सन्दर्भ में देखें तो मरुस्थल(२,०९,१४२ वर्ग किमी) का हिस्सा ६१.१ प्रतिशत या लगभग दो-तिहाई बैठता है. इसे सीधे अर्थों में समझें तो थार का दो-तिहाई हिस्सा भारत में है, भारत में थार का तीन-चौथाई हिस्सा राजस्थान में है और राजस्थान के कुल क्षेत्रफल का दो-तिहाई हिस्सा मरुस्थलीय है. और भारत के कुल क्षेत्रफल ३२,८७,२६३ वर्ग किमी का ८.४५ प्रतिशत हिस्सा (२,७८,००० वर्ग किमी) मरुस्थलीय है.
अपने राजस्थान में मरुस्थल अभी ६५० किमी लम्बाई में और ३०० किमी चौड़ाई में पसरा है. अक्षांशों के दृष्टि से मरुस्थल २५ डिग्री से ३० डिग्री उत्तरी अक्षांश के बीच है, जबकि मरुस्थल का देशांतरीय विस्तार ६९.३० से ७६.४५ डिग्री पूर्वी देशांतर के बीच है. १२ जिलों में मरुस्थल के पाँव टिके हैं. गंगानगर, हनुमानगढ़, चुरू, झुंझुनूं, सीकर, नागौर, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, जालोर और पाली जिलों में मरुस्थल का विस्तार है. अरावली के पश्चिम में केवल एक जिला सिरोही है, जो रेत के इस समुद्र से वंचित है. लेकिन इस मरुस्थल का विस्तार पूर्व की ओर जारी है. नागौर और जयपुर के बीच अरावली की दीवार में अंतराल( वायु घाटियाँ ) हैं, जिनसे होकर रेगिस्तान की रेत अरावली की दूसरी ओर(पूर्व की ओर) जा रही है. अभी तक जयपुर और अलवर में पसरती रेत प्रतिवर्ष आधा किमी की गति से मरुस्थल को खिसका रही है. आने वाले समय में पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश भी मरुस्थल से घिर सकते हैं, अगर मरुस्थल के इस विस्तार को सघन वृक्षारोपण से नहीं रोका गया, तो.
टीले ही टीले या कहीं ढंग पथरीले ?
एक और महत्वपूर्ण बात. रेगिस्तान के समूचे भाग में टीले ही टीले हों, ऐसा नहीं है. राजस्थान के मरूस्थल का केवल ५८.५० प्रतिशत भाग ही टीलों वाला(बलुकास्तूप सहित) है. बाकी भाग में टीले नहीं हैं. रेतीले मरुस्थल को भूगोल की भाषा में ‘अर्ग’ कहते हैं. टीलों को ‘धरियन’ भी कहते हैं. अर्ग के ऊँचे ऊँचे टीलों के बीच में निचली भूमि को ‘मरहो’ या ‘खड़ीन’ कहते हैं. इस नीची जमीन में बारिश के मौसम में पानी इकठ्ठा हो जाने से यह उपजाऊ हो जाती है.
टीलों का निर्माण हमेशा होता रहता है. मार्च से जुलाई के बीच पश्चिम से आती रेत से टीले बनते हैं. आपको जानकारी हो कि राजस्थान में इस समय हवा पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम से आती है और पर्याप्त तेज भी होती है. नए टीले बनते हैं, तो पुराने टीलों की भी ऊँचाई बढ़ती रहती है. ये रेत के टीले (बालुकास्तूप) अलग अलग आकार लिए होते हैं. रेत की मात्रा, रास्ते के अवरोधकों और हवाओं की गति के अनुसार ये टीले रूप ले लेते हैं. ‘पवनानुवर्ती बालुकास्तूप’ हवा की दिशा के साथ लम्बाई में बनते हैं. इन्हें ‘रेखीय स्तूप’भी कहा जाता है. ये जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में पाए जाते हैं, क्योंकि पश्चिमी हवाएं इन जिलों में तेज गति से चलती हैं. नए टीलों की ऊंचाई ८ से १० मीटर तक होती है, तो पुराने टीले १०० मीटर तक भी ऊंचे हो सकते हैं. रेगिस्तान के पूर्वी भाग में, जहाँ हवा की गति कम होती है,  ‘अनुप्रस्थ बालुकास्तूप’ देखने को मिलते हैं, जो हवा के लम्बवत ‘आड़े’ बनते हैं. जोधपुर, नागौर, जालोर, सीकर आदि जिलों में झाड़ीनुमा क्षेत्रों और पहाड़ियों के अवरोधों के कारण बनने वाले इन टीलों की ऊंचाई १० से ४० मीटर तक हो जाती है. ‘बरखान’ टीले अर्धचंद्राकार होते हैं और संख्या की दृष्टि से ये ही सबसे अधिक पाए जाने वाले टीले होते हैं. सामान्य गति से चलने वाली हवा (न अधिक तेज और न मंद) के द्वारा इनका निर्माण होता है. ये भी ऊंचाई में १० से ४० मीटर तक पहुँच जाते हैं. इन टीलों के क्षेत्र राजस्थान के उत्तर में हैं. गंगानगर, हनुमानगढ़, चुरू,सीकर और झुंझुनूं जिलों में आपको ऐसे टीले ही दिखाई पड़ेंगे. बरखान टीले गतिशील भी होते हैं. ये अपनी जगह बदलते रहते हैं.
दूसरी ओर, कंकड-पत्थर से ढका मरुस्थल ‘रेग’ कहलाता है, जबकि मरुस्थल के जिस भाग में चट्टानें और घाटियाँ पाई जाती हैं, उसे ‘हम्मादा’कहते हैं. राजस्थान में यह क्षेत्र (हम्मादा) महान मरुस्थल के पूर्व में जैसलमेर, पोकरण और फलोदी के आसपास पाया जाता है. हम्मादा की चट्टानें चूने पत्थर का भण्डार होती हैं. सानू का प्रसिद्द स्टील ग्रेड लाइमस्टोन इसी भाग में मिलता है. चट्टानों के नीचे भूमिगत जल के अच्छे भण्डार भी जैसलमेर के पास लाठी क्षेत्र में मिले हैं. इन्हें ‘लाठी सीरीज’ कहते हैं.
निर्माण कथा
दुनिया भर के मरुस्थलों में थार सबसे नया है. ध्यान रहे कि हमारी पर्वतमाला अरावली विश्व में सबसे पुरानी है, तो हमारा मरुस्थल सबसे नया. वाकई में राजस्थान में विविधता के रंगों की भरमार है. मरुस्थल के निर्माण के बारे में अलग अलग धारणाएं हैं. उनमें से सबसे प्रबल धारणाभूगर्भीय हलचलों पर आधारित है. लगभग ४००० से १०००० वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में ऐसी हलचलों के कारण इस भूभाग की ऊँचाई उत्तर में बढ़ गई. इससे यहाँ पर स्थित समुद्र(टेथिस सागर) दक्षिण की तरफ खिसक गया और पीछे तट की रेत बच गई. कुछ जगहों पर छिछले खड्डे बन गए, जिन्हें हम अब झीलें (खारे पानी की) कहते है. टेथिस सागर के अवशेषों के रूप में जीवाश्म, लिग्नाईट, खनिज तेल, गैस, जिप्सम, चायनाक्ले आदि इस क्षेत्र में मिल रहे हैं. इस हलचल के कारण इस भाग में बहने वाली प्रमुख नदी ‘सरस्वती’ हनुमानगढ़ के पास रेत में दम तोड़ गई जो आजकल मृत नदी या घग्घर कहलाती है. सरस्वती के साथ बहती ‘हाकरा’ भी पूर्व की और मुंह मोड़ कर चली गई और यमुना बन गई. सरस्वती की कई सहायक नदियाँ भी राह भटक कर समुद्र से बिछुड़ गईं और अंतःप्रवाह की नदियाँ बन गईं. झुंझुनूं की कान्तली और जैसलमेर की काकनी जैसी कई छोटी बड़ी नदियाँ इनमें शामिल हैं. 

About Dr.Ashok Choudhary

नाम : डॉ. अशोक चौधरी पता : सी-14, गाँधी नगर, मेडता सिटी , जिला – नागौर (राजस्थान) फोन नम्बर : +91-94141-18995 ईमेल : ashokakeli@gmail.com

यह भी जांचें

अपने जिले की मोनिटरिंग से देशभक्ति

अपने अपने जिले की मोनिटरिंग,ऐसा काम है जो देशभक्ति के नये आयाम बना देगा.आपको लगेगा …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *