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दिल्ली का ड्रामा

मेरे एक पहचान वाले सरकारी डॉक्टर फोन करते हैं और कहते हैं कि हम सबको बाबा रामदेव का समर्थन करना चाहिये। ये महाशय, डॉक्टर साहब, अस्पताल कम ही जाते हैं, यह मैं जानता हूँ। मुफ्त की तनख्वाह उठाते हैं। लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर परेशान है। तभी एक कपड़ा व्यापारी मुझे सलाह देते हैं कि मैं बाबा के समर्थन में कूद पडूँ। मैं जानता हूँ कि यह व्यापारी महाशय सामाजिक क्षेत्र में दान-पुण्य करके प्रतिष्ठित हो गये हैं, परन्तु सरकार को टैक्स देने से इन्हें बड़ा परहेज है। कई ऐसे लोगों ने भी सम्पर्क किया, जिनके बारे में मुझे खबर है कि उन्होंने अपने परिवार को पालने के लिए भी जीवन में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया, बस जैसे-वैसे जीवन जी रहे हैं।
मैं गम्भीर हो जाता हूँ, परेशान हो जाता हूँ। बाबा के समर्थकों के राष्ट्रप्रेम और दोगलेपन पर। मुझे पिछले अंक में भ्रष्टाचार के खेल पर मजबूरी में लिखना पड़ा था। मुझे लगा था कि शायद यह नाटक अब रुकने ही वाला होगा, परन्तु बाबा की लीला ने दो पेज लिखने पर विवश कर दिया है। जब चारों तरफ यही माहौल है, तो रोचक राजस्थान के पाठक भी इससे मुक्त नहीं होंगे। ऐसे में एक बार फिर भ्रष्टाचार के इस नाटक पर लिख रहा हूँ और बस, अंतिम बार।
दिल्ली की डील
पिछले अंक में मैंने जिक्र किया था कि साधारण मनुष्यों की तरह अधिकांश चिंतकों और संतों में भी ईर्ष्‍या का भाव रह ही जाता है। योग-साधना-ज्ञान के इलाज से भी यह रोग कटता नहीं है, कुछ अंश रह ही जाते हैं। या फिर हो सकता है कि साधना में कोई कमी रह गयी हो और या सांसारिक प्रभाव अधिक प्रबल हों। जो भी हो, अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई का नायक बनता देखना बाबा जी को नहीं भाया। कोई भी मनोविज्ञान शास्त्र का ज्ञाता, उनके हावभाव, चाल-ढाल या भाषा से अंदाज लगा सकता है। सरकार के कूटनीतिज्ञ भी जहर को जहर से काटने के लिए बाबा को ढूंढ़ रहे थे। किसकी और कितनी गर्दन लोकपाल के बिल से बाहर रखी जाये, इस पर अंदर ही अंदर संघर्ष जारी था। ऐसे में बाबा से एक डील कर ली गयी। सरकार भी अन्ना और लोकपाल से परेशान थी, बाबा भी। एक समझौता हो गया। बाबा के प्यारे शिष्य मंत्री सुबोध कांत सहाय ने मध्यस्थता कर ली। दिल्ली एयरपोर्ट पर बात ऐसे ही नहीं हुई थी। सब कुछ फिक्स था। वाकई में पर्दे के पीछे क्या-क्या होता है? तभी तो इग्नोरेन्श अज्ञानता, कभी-कभी ब्लिस या वरदान बन जाती। कम जानो, कम पीड़ा। तो, तीन दिन के अनशन की डीलहो गयी। बाबा, अन्ना से अधिक जनसमर्थन दिखा सकते थे और सरकार उनसे समझौता करके अन्ना को आँख दिखा सकती थी। डील ओके हो गयी, पक्की हो गयी।
कांग्रेस का पलटवार
तभी कांग्रेस अपने असली अंदाज में आ गयी। अँग्रेज़ों के वारिस होने के कारण कांग्रेस नेता राज बचाने के कई फॉर्मूले जानते हैं। कांग्रेस का मूल विचार भी यही है – किसी भी कीमत पर राज में बने रहना। इसलिए कभी मुस्लिमों को डराओ, कभी गरीबों को अपनी ओर करो, कभी आरक्षण देकर समाज को बाँटो। कांग्रेस की इस विचारधारा के पीछे अपने कारण है, परन्तु विपक्षी पार्टी भाजपा भी राज में आने के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं चूक रही है। भाजपा का मूल विचार यह था नहीं, इसीलिए लोगों को पीड़ा होती है। कांग्रेस के राज के खेल को जनता पारम्परिक मानती है। खैर! कांग्रेस के नेताओं ने डील की चिट्ठी लीक कर दी। डील को डिल्ली बना दिया। दिल्ली में तो डिल्ली ही होनी थी। बाबा अपने ही चक्रव्यूह में फंस गये। इधर जाओ तो कुआं, उधर जाओ तो खाई। 5-7 साल की कमाई पर पानी फिर रहा था। आखिरी दांव फेंका और कहा कि अनशन जारी रहेगा। लेकिन चेहरे पर परेशानी साफ झलक रही थी। योग-साधना भी काम नहीं आ रही थी!  बस इतनी सांत्वना थी कि अवतारवाद की आदी हो चुकी जनता, डील-वील नहीं समझ पा रही थी। लेकिन यह तय था, कि बाबा के साथ जनता सड़कों पर उतरने को भी तैयार नहीं थी। मैंने पिछले अंकों में बार-बार लिखा है कि अन्ना या बाबा, भारतीय मानस को समझें। यह भावनाओं का खेल इतना आसान नहीं है। देश का कर्णधार ऐसे नहीं बना जाता। गांधी, सुभाष या जे. पी. बनने के लिए तपस्या चाहिये, बयानबाजी नहीं।  दिल बड़ा चाहिये, आंखों में ईमानदारी चाहिये। वरन् जनता के दिल तक बात नहीं पहुँचती है, दिमाग के अंधेरे में भटक जाती है।
राम देव लीला
कितने लोग होंगे रामलीला मैदान में? कोई 15 से 20 हजार। बाबा सवा लाख बता रहे थे, ताकि बड़े जनसमर्थन का दावा कर सकें। पुलिस 50 हजार बता रही थी, ताकि कार्यवाही का बहाना मिल सके। खफिया आँकड़े 20 हजार को पार नहीं कर रहे थे। रामलीला मैदान में आलीशान सुविधाओं की आस में और भरोसे पर स्त्री-पुरूष वहाँ जुटे थे। बरसों से बाबा ने योग, दवाईयों, स्वाभिमान पार्टी के नाम पर ये कार्यकत्र्ता तैयार किये थे। लेकिन योग शिविर और व्यवस्था परिवर्तन की रैलियों में फर्क होता है। लेकिन अचानक जे.पी. की प्रसिद्ध रैली से तुलना होने लगी थी। जे.पी. के वे समर्थक कौन थे? छात्रों की संख्या उनमें अधिक थी, जो जे.पी. की सम्पूर्ण क्रांति के नारे पर दिल्ली आये थे। अब तो भारतवर्ष के कॉलेज-यूनिवर्सिटी लगभग बंद पड़े हैं। देश का छात्र मोबाइल, क्रिकेट, गुटखा, फेसबुक आदि में उलझा पड़ा है। जिनका दिमाग थोड़ा बहुत चिंतन कर लेता है, वह रोजगार के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में माथा खपा रहा है। बहुत होशियार है, तो विदेशियों का गुलाम बनने में वह और उसका परिवार शान समझता है। जे. पी. के किसी भी एक समर्थक से आज भी आप बात करके देखिये, फर्क नजर आ जायेगा। एक छोटे-मोटे लाठीचार्ज को तो वे मजाक में लेते थे। जेलों को उन्होंने अपना दूसरा घर बना लिया था।
4 जून की रात का भ्रमजाल
इधर बाबा हुंकार भरते हैं कि मुझे पुलिस पकड़ेगी, तो क्या आप लोग मेरे साथ जेल जाओगे। सभी निर्दोष समर्थक हाँ भर देते हैं। फिर बाबा अपना पुराना जुमला दोहरा देते हैं कि वे मरने से नहीं डरते। वे देश के लिए बलिदान होने की हिम्मत रखते हैं। और तभी, टी.वी. पर एक तस्वीर दिखाई देती है, बाबा स्टेज से, मंच से जम्प कर जाते हैं। कूद जाते हैं। पता नहीं क्यों, मन विचलित हो जाता है। मरने से नहीं डरने की बात कह रहे बाबा का इस तरह कूदना अजीब लगता है। फिर वे महिलाओं की शरण में गये। शर्म तो तब महसूस हुई जब उन्हें सलवार-कुरता पहने देखा। कैसी बहादुरी? कैसा संघर्ष? बड़ी-बड़ी बातें बोलने वाले बाबा, इतना सा संघर्ष भी नहीं सहन कर सके? फिर उनका यह कहना भी बचकाना लगा कि उनका एनकाउन्टर हो सकता था, उन्हें मुठभेड़ में मारा जा सकता था। एक छुटभैये नेता या अपराधी की भाषा! वे भी पकड़े जाने पर ऐसी साज़िशों की कहानियां रचते हैं। कौन एनकाउन्टर करता और क्यों करता? किसी अपराधी को एनकाउन्टर में मारना अफ़सरों-सरकारों को कितना भारी पड़ता है। फिर बाबा जैसे व्यक्ति को खुले आम मार कर क्या सरकार बच सकती थी? बाबा का व्यक्तित्व भी निराश ही कर रहा था। कहीं भी देश को दिशा देने वाली गम्भीरता उसमें नहीं दिखाई पड़ी। संतों की सौम्यता और विनम्रता भी गायब थी। कभी पीछे आशाराम बापू भी गुजरात में अपने परदे उखड़ने पर इसी अंदाज में तिलमिला उठे थे।
महत्त्वाकांक्षी बाबा, निष्क्रिय जनता
कुल मिलाकर इस ड्रामे का अंत न तो सुखद रहा, न दुखद। आप इसे कॉमेडी भी नहीं कर सकते, ट्रेजडी भी नहीं कह सकते। इसे भारत की जनता के साथ एक धोखा कह सकते हैं, कि कैसे एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति अपने नाम के लिए अपनी प्रतिष्ठा के लिए हदें पार कर सकता है। मैं तो बाबा के प्रति तभी शंकित हो गया था, जब उन्होंने भारत स्वाभिमान पार्टीगठित करके सभी 543 लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। इतनी ग़लतफ़हमी? मुझे याद आता है, राजस्थान के एक प्रसिद्ध लोक गायक हैं-कालूराम प्रजापति। उनके गीतों को हम खूब गुनगुनाया करते थे और दीवाने थे। ब्याव बीनणी बिलखूं मैं तो कद परणासी बाबलियो। यह तब का हिट गीत था। कालूराम जी अपने गीतों की लोकप्रियता के मद में इतने बह गये कि, जोधपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ बैठे। प्रचार में जहाँ भी जाते, लोग गीत सुनाने को कहते, तो वे सोचते कि जबरदस्त जनसमर्थन है। नतीजा? प्रजापति जी की जमानत जब्त हो गयी। अगर बाबा भी आज भारतवर्ष में अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं, तो यही हाल होना है।
इस पूरे ड्रामे के दौरान जनता निष्क्रिय ही रही। मेरी माने तो यह जन आन्दोलन बन ही नहीं पाया है। केवल टी.वी. देखकर या इन्टरनेट (फेसबुक) के इस्तेमाल से परिवर्तन थोड़े ही होते हैं। अधिकांश भारत की जनता अब भी यही चाहती है कि कोई आसमान से उतरे और हमारा जीवन संवार दे। हम घर से न निकलें। जनता के अवतारवाद में विश्वास करने के  भी अपने कारण हैं। बचपन से इसी तरह का इतिहास पढ़ाया जा रहा है। राजाओं का, दानवीरों का। एक स्वतन्त्र देश के जिम्मेदार नागरिक बनने की प्रेरणा अभी भी गायब है। हम जानना ही नहीं चाहते कि हमारा प्रदेश-देश कैसे चलता है। पिछले अंक में मैंने राजस्थान के बजट पर सरल भाषा में लिखा था। अधिकांश पाठकों ने आंकड़े देखते ही आँखें झपकाली और पेज पलट दिया। क्या पढ़े लिखे होने का बस इतना ही अर्थ है कि हल्की फुलकी ख़बरें पढ़ लें? कब हम अपने कर्त्तव्य के प्रति गंभीर होंगे? अब अगर राजीव गांधी ने कह दिया कि एक रुपये में से केवल 15 पैसे नीचे पहुँचते हैं, तो हम इसे अर्थशास्त्र का ज्ञान मानकर दोहराते रहते हैं। किसी ने कहा कि अधिकांश भारतीय 20 रुपये से कम में रोज गुजारा करते हैं, तो हमें लगता है- बस, अर्थव्यवस्था का पता लग गया। ऐसा नहीं है। इतनी सी बात नहीं है। जागरूक नागरिकों को अर्थव्यवस्था की गहराई से जानना चाहिये। वरन् यूं ही राजनीति के सर्कस या ड्रामा पर तालियाँ पीटने से लोकतंत्र मजबूत नहीं होगा।
अंतिम समाधान
अब एक यक्ष प्रश्न कि क्या हम स्वयं ईमानदार हैं या कहें भ्रष्ट नहीं है? क्या हम सरकार द्वारा दिये गये वेतन के अनुरूप काम करते हैं या ठाले बैठकर ईमानदार होने का ढोंग करते हैं? क्या हम सरकार को देय सभी टैक्स (करों) का भुगतान करते हैं? या गोशालाओं-मन्दिरों-मस्जिदों को कुछ पैसा देकर भामाशाह बने घूमते हैं। क्या कभी हमने सूचना के अधिकार का प्रयोग कर अपने शहर या गाँव की अव्यवस्थाओं पर प्रश्न उठाया है? नहीं, तो फिर कोई भी बाबा या अन्ना भ्रष्टाचार खत्म नहीं कर पायेंगे, भले आप तालियाँ पीटते रहें।
और अंत में मैं बाबा या अन्ना के खिलाफ बिल्कुल नहीं हूँ, बस मैं उन्हें अवतार नहीं मान पा रहा हूँ। दूसरी तरफ मैं उन निठल्ले बुद्धिजीवियों का भी समर्थक नहीं हूँ जो कहते हों कि हमें तो पहले से ही पता था कि कुछ होना जाना नहीं है। इसीलिए तो वे घर में बैठे थे। सच पूछिए तो ऐसे लोग ही असली समस्या के गर्भ में हैं। मेरा आग्रह तो यह है कि हम बाहर निकलें और जिम्मेदारी के साथ निकलें। केवल आलोचना के सहारे बैठे ना रहें। अपने बूते पर जब तक हम प्रयास नहीं करेंगे, भ्रष्टाचार देश की व्यवस्था को दीमक की तरह चाटता रहेगा। जब चुनाव आयेंगे, तो हम सभी जातियों और क्षेत्रों के हिसाब से वोट देने वाले हैं। तब हम फिर करुणानिधि की जगह जयललिता को लाकर बता देंगे। एक भ्रष्ट की जगह दूसरा भ्रष्ट। परिवर्तन कर पाने का एक झूठा दम्भ भरेंगे। विद्वान कहेंगे कि यह लोकतंत्र की जीत है कि जनता परिवर्तन कर लेती है। लेकिन क्या इसे लोकतंत्र की जीत कहना ठीक है? तो विकल्प भी कहाँ हैं? बाबा या अन्ना विकल्प नहीं है? विकल्प तो राजनैतिक ही होंगे। अब करना यही है कि राजनैतिक दलों को लोकनैतिक दल बनाना है, उन पर जनहित और विकास की सही नीतियाँ बनाने का दबाव डालना है। इन दलों के भीतर लोकतंत्र पनपे, इसका माहौल बनाना है। जागरूक नागरिक तैयार करने है, जो आर्थिक मुद्दों को भी समझ सकें और जिम्मेदारी ओढ़ने की हिम्मत रखते हों। ऐसे नागरिक जो अवतारों की बजाय स्वयं में विश्वास रखते हों।
जयपुर में एक विचार मंच पर जब कुछ मित्रों से भ्रष्टाचार पर चर्चा हो रही थी, तो मैंने एक बात कही थी। आपको भी बता दूँ। मैंने कहा था, भ्रष्टाचार एक मजबूत दीवार का रूप ले चुका है। देश के शीर्ष नेतृत्व से लेकर नरेगा मजदूर तक भ्रष्ट हो चुके हैं। सत्य और अहिंसा की तरह ईमानदारी भी तो केवल अब किताबों में रह गयी है। ये सब अब हमारे बौद्धिक दोगलेपन के सहारे रह गये हैं। हकीकत भयावह है, इतनी सरल नहीं जिसे कोई बाबा या अन्ना आसानी से बयान कर दे और भ्रष्टाचार खत्म करने का भरोसा दे दे। कितनों को फाँसी दोगे, किसे पकड़ोगे? इस हमाम में हम सभी नंगे हो चुके हैं। मैंने कहा कि एक आसान रास्ता है और वही बचा है। इस भ्रष्टाचार की दीवार के चारों तरफ पानी डाल दो। इससे सिर मत फोड़ो। यह नहीं टूटेगी। पानी डाल दो, चारों तरफ। दीवार ढह जायेगी। व्यवस्थाओं में ऐसे बदलाव कर दो कि भ्रष्ट होने का आकर्षण कम हो जाये। अभिनव राजस्थान की कार्ययोजना ऐसी ही है। फिर से गम्भीरता से एक-एक शब्द उस कार्ययोजना का पढ़ें। रास्ता नजर आ जायेगा।

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3 comments

  1. But apse ek request h dr sab aap b is abhinav Rajasthan ko political form me convert Mt Kr dena

  2. Thanks sir aapne to meri sochne kidisa hi badl de.

  3. Thanks sir aapne to meri sochne kidisa hi badl de.

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