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गणतंत्र या गुलाम तंत्र – लोकतंत्र या राजतंत्र

भाषा और कार्य तो यही कहते हैं

२६ जनवरी पर विशेष 

किसी भी ग्रन्थ या ज्ञान का अन्य भाषा में अनुवाद करना टेढ़ा खेल होता है. मूल भावना के साथ छेड़छाड़ हुए बिना नहीं रहता है. जब वेदों का अनुवाद सरल भाषाओँ में किया जा रहा था, तब भी स्वार्थ के अनुसार इनकी व्याख्या कर ली गई थी. वेदों ने कभी भी भारतीय समाज में ऊंच नीच की बात नहीं की थी. केवल कार्य के आधार पर वर्णों में या वर्गों में विभाजन था. लेकिन व्याख्या करने वालों ने कह दिया कि शूद्र नीची जाति के लोगों का कहा जाता था. नीची जातिशब्द का वेदों जैसे मानव सभ्यता के श्रेष्ठ ग्रंथों में क्या  काम था. परन्तु मध्यकाल में अपने स्वार्थ के लिए यह व्याख्या गले की हड्डी बन गई. आज भी बनी हुई है. ऐसी अनेक गलत धारणाओं को ठीक करने में समाज और धर्म के सुधारकों को लंबा संघर्ष करना पड़ा है. भगवान महावीर और बुद्ध से लेकर स्वामी दयानंद और विवेकानंद तक यह संघर्ष जारी रहा है. आज भी जारी है.

संविधान का इतिहास
ऐसे ही, अगर हमारे देश के संविधान में मात्र गलत अनुवाद के कारण अर्थ का अनर्थ होता है या हुआ है, तो देश के लिए ये संकेत भी अच्छे नहीं हैं. इन संकेतों को समझने से पहले संविधान के इतिहास पर एक नजर डाल लेते हैं. आपको पता होगा कि यह संविधान मूल रूप से अंग्रेजों ने 1935 में तैयार किया था और उनका ईरादा इस संविधान के जरिये अपने गुलामों पर राज करना था. अपने गुलामों को केवल भ्रम में रखना था कि वे अपने प्रतिनिधि खुद चुन सकते हैं, पर असल में सत्ता अंगरेजी हुकूमत के हाथ में रहनी थी. अंग्रेजों ने इस संविधान के तहत अपने सीधे अधीन क्षेत्रों में 1937 में चुनाव भी करवा लिए थे. लेकिन 1939 में दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने से उनकी यह मेहनत बेकार हो गई. काम बीच में रुक सा गया. रही सही कसर सुभाष चंद्र बोस ने पूरी कर दी. उन्होंने अंग्रेजों से सम्पूर्ण मुक्ति का रास्ता तलाश कर सत्तालोलुप कांग्रेसियों को झटका दे दिया. 1942  में भारत छोड़ो आंदोलनकी नींव वे रख ही चुके थे और भारत से बाहर जाकर आजाद हिंद फ़ौजभी उन्होंने बना ली. पर बदकिस्मती रही भारत की, हमारी कि बोस के रास्ते आजादी नहीं आ सकी. बोस गद्दारों के षड़यंत्र में शहीद हो गए. उनके पीछे कुछ छलियों के हाथ में सत्ता का हस्तांतरण हो गया, जिसे आजादीनाम दे दिया गया.
और जब देश में 1947 के बाद अपना (?) संविधान बना, तो वह भी वैसे ही बना, जैसे आजादी आई. संविधान को भी केवल नाम और पता बदल कर लागू कर दिया गया. अंग्रेजों के 1935 में बनाए गए संविधान के ढाँचे में ही कुछ वाक्य और शब्द दूसरे देशों से लेकर डाल दिए. शुद्ध भारतीय संविधान बनाने का किसके पास समय था, सबको सत्ता की जल्दी थी. गांधी जी वैसे भी जा चुके थे. जो भी हो, एक लंबा चौड़ा संविधान बन ही गया. पर जब संविधान के हिंदी अनुवाद की बात आई, तब असली गडबड हुई. तब लोकतंत्र का मजाक बना, तब गणतंत्र का मजाक बना. अनुवाद से गुलाम तंत्र की, राज तंत्र की बू आ ही गई. पता चला कि कुछ नहीं बदला है, बस वही हाल है, जो पहले था. और जब शब्दावली ही राजतंत्र को बढ़ावा दे रही हो तो इस ढाँचे में काम करने वाले कुछ लोग अपने को राजाऔर कुछ गुलामही समझेंगे. 1206 में मुहम्मद गौरी के सोलह टके में खरीदे गुलाम कुतुब्बुद्दीन को हिंदुस्तान का बादशाह बनाने से शुरू हुई परंपरा एक बार फिर से नए रूप में जीवित हो गई. जरा शब्दों के अनुवाद पर गौर कीजिये.
गुलाम शब्दावली
१.         राष्ट्रपति, का शाब्दिक अर्थ होता है राष्ट्र को पालने वाला. जो राष्ट्र को पालता हो. यह राजतंत्र का शब्द है. लोकतंत्र का शब्द होता- राष्ट्राध्यक्ष. वही प्रेसिडेंटशब्द का सही हिंदी अनुवाद होता. राष्ट्राध्यक्ष ही होना चाहिए था. पर राजतंत्र की मानसिकता से भरे लोगों ने गलत अनुवाद से भारत के राष्ट्रपति को इंग्लेंड की महारानी के समकक्ष रखा है. वह राष्ट्र का मालिक नजर आता है, सेवक नजर नहीं आता. इसी कारण राष्ट्रपति के लिए तमाम तामझाम भी राजा महाराजाओं वाले रखने पड़ते हैं. कहने को तो इसे देश की शान कहा जाता है, लेकिन असल में यह भारत के नए महाराजाया बादशाहकी शान ही अधिक नजर आती है.
२.         प्रधानमंत्री शब्द भी राजतंत्रीय है. किसी राजा का प्रधानमंत्री. लोकतंत्र में तो हमारा मुख्य कार्यकारी निदेशकहोना चाहिए था, जनता का नुमाइंदा, जो व्यवस्थाओं को जनता के आदेश और जनता की भावनाओं के अनुरूप चलता. अब यहां तो प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के आदेश पर सब काम करता है. कम से कम कागजों में तो ऐसा ही है. यही हाल, मंत्रियों का है. वे भी राष्ट्रपति के मंत्री हैं. ये सभी राष्ट्रपति की कृपातक अपना काम करते हैं. 
३.         राज्यपाल का अर्थ राज्य को पालने वाला होता है. वैसे तो राज्यशब्द ही राजतंत्र में होता है. अगर लोकतंत्र का या हमारे प्राचीन गणतंत्रों का शब्द भी लेना होता तो वह प्रांतहोता. क्षेत्रहो सकता था. तब हम गवर्नरशब्द का भी सही अनुवाद कर सकते थे- शासनाध्यक्ष यानि शासन का अध्यक्ष. गवर्नर, गवर्नमेंट(शासन) का अध्यक्ष ही तो होता है. जब इस तरह का शब्द होता, तो प्रान्तों का शासनाध्यक्ष, क्षेत्रीय राजा की तरह व्यवहार नहीं करता और न ही इतने ठाट बाट से रहता. शासकीय कोष पर भार भी कम होता. ऐसा नहीं होता कि जब मर्जी आई, किसी परिचित के घर विवाह में भाग लेने भारत में कहीं भी हवाई जहाज लेकर चल दिए ! शासकीय खर्चे पर. मुख्यमंत्री का नामकरण भी ऐसे हाल में क्षेत्रीय या प्रांतीय  कार्यकारी निदेशकहोता और यह नामकरण अधिक जिम्मेदार होता. तब वह पाई पाई का हिसाब रखता. राजनहीं करता.
४.         राजशब्द भी हमारी गुलाम परंपरा में आज भी कायम है. राजकीयशब्द को हम हर जगह इस्तेमाल कर राजतंत्र की भावना को पुख्ता करते रहते हैं. हम कहते भी हैं कि अभी कॉंग्रेस का राजहै या बी जे पी का राजहै. 
यहां तक कि व्यक्तियों के नाम से गहलोत राज, वसुंधरा राज, मोदी राज आदि कहकर भी अपनी राजतन्त्र में घुली मानसिकता भी खुलेआम जाहिर करते हैं. गुलामी की परंपरा को किसी तरह जीवित रखने को आतुर इस कौम में लोकतंत्र तो केवल वोटतंत्रको ही समझ लिया गया है. राजऔर राजकीयकी बजाय शासनया शासकीयशब्द होते तो ज्यादा प्रभावी होते.
५.         अभी भी शासन में काम करने वाले हमारे समाज के लोगों को हम राज के नौकरकहकर सुशोभित (?) करते हैं. वे जनसेवक नहीं बन पाए हैं, तो इसी गुलाम शब्दावली के कारण. नौकरया दासशब्द तो गुलाम वंश के साथ हमारे यहां आया था. हमारी संस्कृति में इस तरह के निकृष्ट शब्दों के लिए कभी जगह नहीं रही है. हमारे यहां तो वैदिक परंपरा में सहयोगीशब्द ही काम में लिया जाता रहा है. यहां तक कि शेरशाह सूरी द्वारा अपने क्षेत्रों को सरकारोंमें बाँटने का इतना असर रहा है कि आज भी सरकारशब्द हमारे अपने शासनशब्द पर भारी पड़ता है. यह अडमिनिस्ट्रेशनका अनुवाद नहीं है. यह किसी बादशाह की सरकार ही है.
६.         अधिकारीका अर्थ होता है, जिसे अधिकार प्राप्त हो. या कहें कि उसे प्राप्त अधिकार, जनता के अधिकारों पर अत्यधिक भारी पड़ता हैं. ऐसा लगता है कि जैसे अधिकारकेवल उसी को है, जनता तो उसके रहमोकरम पर है. वे जनता का सेवक या सहयोगी नहीं हो सकता, वे तो राजका अधिकारीहै. यह अंग्रेजी ऑफिसरका अनुवाद नहीं है. उसका अनुवाद होता- कार्यालयाध्यक्ष. ऑफिस का, कार्यालय का अध्यक्ष. ऑफिस संभालने वाला. पर जब अधिकारी शब्द रहेगा तो फिर हम उसकी सेवा मेंप्रार्थना पत्र, याचिका  या ज्ञापन प्रस्तुत करते ही रहेंगे. हम उसकी कृपापर रहेंगे और उसके आज्ञाकारीभी रहेंगे. स्पष्ट है कि इन प्रार्थना पत्रों की भाषा से तो लोकतंत्र की बू कहीं से नहीं आती.  याचिका भी याचकों द्वारा दी जाती है. याचक या मांगने वाला तो केवल राजतन्त्र में हो सकता है, लोकतंत्र में तो नहीं. पर गुलामी की धुंध में अब भी हमारी मांगें  पूरी करोके नारे लगते रहते हैं. कमाल तो यह है कि अर्जियां’, ‘याचिकाएं’, ‘ज्ञापनया प्रार्थना पत्रआज भी हमारे स्कूलों में ऐसे पढाए जा रहे हैं, जैसे इन बच्चों को राजतंत्र चलाना हो ! लोकतंत्र की भाषा में प्रार्थनाओं का क्या काम. प्रार्थना तो अब केवल ईश्वर से की जानी चाहिए.
अभिनव शासन’ में शुद्धीकरण

यानि बाहरी शासकों ने यहां की शब्दावली को गुलामी के रंग में इतना रंग दिया है कि आज भी हम उससे मुक्त नहीं हो पा रहे हैं. शब्दों का प्रयोग हमारी मानसिकता को प्रभावित कर रहा है, यह सत्य है. तुर्कों की सल्तनत, मुगलों की हुकूमत और अंग्रेजों के राजमें यह गुलामी की बौद्धिक परंपरा शुरू हुई है, जो हमारे संविधान को बनाते समय भी कायम रही है. आप शासकीय शब्दावली को जितना ज्यादा खंगालेंगे, उतने ही गुलामी के शब्द ज्यादा मिलेंगे. इन शब्दों से शासन संभाल रहे लोगों को गलतफहमी रहती है कि वे मालिकहैं और जनता को लगता रहता है कि वह अभी भी सब्जेक्टया गुलामया शासितहै. निसंदेह शासकीय शब्दावली को बदलने की आवश्यकता है और यह काम संविधान की अनुवादन की गलतियों को सुधारने से शुरू होना चाहिए.  संविधान से ही कानून और नियम बनते हैं, जो राजतन्त्र के शब्दों से भरे होते हैं. लोकतंत्र इन शब्दों के भार तले दबता जा रहा है. अभिनव राजस्थानमें हम ये शब्द बदलकर असली लोकतंत्र का माहौल बनाएंगे. अपने शासनका अहसास दिलाएंगे.  वंदे मातरम !

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4 comments

  1. Bhaut kuch janne ko mila sir

  2. tasli se smjne ki jrurt h..constitution se to yhi meaning aa rha h.

  3. tasli se smjne ki jrurt h..constitution se to yhi meaning aa rha h.

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