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लोकपाल पर इतना हल्ला क्यों है भाई ?

‘थें थोडा सा गहराई में झांको, भेद खुल जासी’
पूरे देश में हल्ला मच रखा है. लोकपाल, लोकपाल. कहा जा रहा है कि लोकपाल आने पर देश में साठ प्रतिशत भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा. यह ताज़ा फोर्मूला लाया गया है. पुराने फोर्मूलों पर पुरस्कार मिल गए हैं, कई सेवानिवृत अधिकारियों को आयोगों के नाम पर रोजगार मिल गया है. अब कुछ नया चाहिए.
अधिकार ही अधिकार
वोट का अधिकार जब भारत के प्रत्येक व्यस्क नागरिक को दिया गया था, तब भी कहा गया था कि जनता अब अपने प्रतिनिधि चुनेगी, उनके माध्यम से राज करेगी. क्या जनता राज कर पायी ? क्या वे अब भी नए ‘सामंतों’ का ही चुनाव नहीं कर रही ? क्या आज भी कोई समर्पित, ईमानदार और विद्वान व्यक्ति इन सामंतों की मेहरबानी के बिना चुनाव जीत सकता है ?

सूचना के अधिकार के समय भी यही दावा किया गया था. कहा गया था कि सूचना का अधिकार मिलने पर जनता का राज आ जाएगा. राज आया क्या ? कहा गया था कि भ्रष्टाचार बीते दिनों की बात हो जायेगी. भ्रष्टाचार बीते दिनों की बात ज्यादा लगती है या वर्तमान की बात ज्यादा लगती है ? क्यों अभी भी अधिकांश लोग इस अधिकार का प्रयोग करने से बचते हैं या डरते हैं ?
रोजगार के अधिकार को भी अरुणा रॉय की टीम ने सोनिया और राहुल गांधी को बहकावे में लेकर क़ानून का रूप दिलवा ही दिया. उनसे कहा कि इससे गरीब जनता खुश हो जायेगी और आप लोगों का नाम भी इंदिरा गांधी की तरह गरीबों के हितेषी के रूप में चमक जायेगा. क्या हुआ इसका परिणाम ? गरीबी कितनी कम हुई ? हजारों करोड़ के खेल के क्या परिणाम आये हैं ? हकीकत जानते हुए भी मीडिया में नरेगा से ‘भारत निर्माण’ का झूठा प्रचार करवाया जा रहा है. जबकि अब तो गरीबों की भी इस अधिकार में रुचि कम हो गयी है. उन्हें भी लग गया कि नरेगा से मिलने वाले मात्र दस हजार सालाना से घर नहीं चलेगा. धोखा अब नहीं खाना है.
बीच में मानव अधिकार के वकील आये थे और मानवाधिकार विश्व के चिंतन बाजार में छाया हुआ था. उसके लिए भी आयोग बन गए. क्या मानवाधिकारों का हनन रुक गया ? क्या अधिकांश जनता को मानवाधिकार के विषय के बारे में पता है ? नहीं न.
कुछ साल पहले चुनाव सुधार के लिए कोशिश की गयी थी. चुनाव के खर्च का ब्यौरा देना अनिवार्य कर दिया गया. ऐसा प्रचार किया गया कि इससे चुनाव में धन बल का प्रभाव कम होगा. हुआ क्या ? उम्मीदवारों को अपनी आय और संपत्ति का ब्यौरा देने को कहा गया था. ताकि राजनीति में आकर लोग पैसे न बनाए. लेकिन अनेक अरबपतियों ने अपने खातों में केवल कुछ हजार रूपये जमा बताए. संपत्ति का गलत ब्यौरा दिया. क्या ऐसे किसी भी उम्मीदवार या जनप्रतिनिधि की आय कर विभाग द्वारा जांच करवाई गयी है और गलत पाए जाने पर कोई कार्रवाई की गयी है ? आपने नहीं सूना होगा. फिर क्यों चुनावों के समय इतने कागज़ खराब किये जाते हैं ?
केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सी वी सी) और सी बी आई पहले से हैं. क्या ये अपने काम को ठीक से कर पा रहे हैं ? न्याय व्यवस्था देश के कोने कोने में पसरी है. क्या न्याय समय पर हो पा रहा है ? क्या गरीब आदमी न्याय पाने के प्रति आश्वस्त है ?
जनजागरण के मार्ग से परे ‘पगडंडियां’
जब ये संस्थाएं आज तक जनता के लिए कुछ नहीं कर पाईं हैं, तो लोकपाल कैसे परिवर्तन कर लेगा ? वह भी आएगा तो इसी समाज से, जहां समर्पण, निडरता और ईमानदारी से जीने का कोई मूल्य नहीं रह गया है. उस समाज से जो आज पैसे, प्रभाव और पद के आगे सादगी और  ज्ञान के महत्त्व को नकारता है. समाज की वह जमीन ही खराब है, तो कैसा भी बीज डालो, फसल अच्छी नहीं होगी. इसलिए महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि जनजागरण के माध्यम से, लोकतंत्र के लिए आवश्यक  जमीन को तैयार किया जाए. व्यवस्था के परिवर्तन के लिए जिम्मेदारी खुद के हाथों में ली जाए. केवल दूसरों को चोर कहने के आनंद को तिलांजली दी जाए.
जनजागरण ही  एक रास्ता है, इस देश को बचाने का. लेकिन यह रास्ता काँटों भरा है, उबड खाबड़ है. इस पर चलने में जोर आता है, इसलिए  कुछ लोग सीधी, शोर्टकट पगडंडियां ढूंढकर नाम कमाने के जतन करने लगते हैं. उन्हें भी पता है कि उन पगडंडियों पर लोकतंत्र का रथ नहीं चल पायेगा. फिर भी वे देश की अपरिपक्व जनता को अपने चातुर्य से , प्रस्तुतीकरण की कला से गुमराह करते हैं. राजनैतिक शून्य में केवल अपनी टांग अड़ाकर देश का नेतृत्व करने का भ्रम भी पैदा करते हैं. यह भी तो भ्रष्ट आचरण नहीं है क्या ? देश को गुमराह करना भ्रष्ट आचरण ही तो है. भ्रष्टाचार का मतलब केवल रिश्वतखोरी ही तो नहीं होता है !  
अलग अलग ‘ब्रांड’
दरअसल कुछ शब्दों के जादूगर बाजार में कंपनियों की तरह अपने अपने ‘ब्रांड’ बाजार में बेचते हैं. यह जब तब इस देश में होता रहा है. अरुणा रॉय के ब्रांड हैं, ‘सूचना का अधिकार’, ‘नरेगा’, ‘खाद्य सुरक्षा’. बाबा रामदेव के ब्रांड हैं, ‘काला धन’, ‘छोटे करेंसी नोट’. अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी और मनीष सिसोदिया का ब्रांड है, ‘लोकपाल’. अन्ना को तो इन लोगों ने इस्तेमाल किया है. एक मुखोटे के तौर पर, क्योंकि इस देश में ‘गांधी’ ‘महात्मा’ या बाबा’ के नाम पर भोली जनता को गुमराह करना आसान है. उनसे भीड़ इकट्ठी होती तो वे कब की कर लेते. यूँ ही कब से दिल्ली में एन जी ओ, एन जी ओ खेल रहे थे. बड़े खेल के लिए अन्ना काम आ गए.
दूसरी कमाल की बात इन जादूगरों की देखिये. ये सभी अपने अपने ‘ब्रांड’ को चतुराई से इस देश की हर समस्या का हल बताने में माहिर हैं. बाबा रामदेव कहते हैं कि काला धन देश में आ जाए तो इस देश को विश्व की ताकत बनने में देर नहीं लगेगी. इंदिरा गांधी कि तरह वे भी इस धन से देश की गरीबी मिटा देना चाहते हैं. वे ‘देश के भीतर काले धन’, ‘सूचना के अधिकार’ या ‘लोकपाल’ को जुबान पर नहीं लायेंगे. दूसरे के ब्रांड का प्रचार कैसे करें ! कंपनियां दूसरों के ब्रांड क्यों बिकवाएंगी ! बाबा ‘लोकपाल’ से परहेज करते हैं, तो अन्ना ‘काले धन’ पर चुप हैं ! क्या इतने से स्पष्ट नहीं हो जाता कि इनके इरादे कितने नेक हैं.
यह भी देखिये कि ये अभी चुनाव लड़ने के नाम से डरते हैं, लेकिन पंचायती सड़क से संसद तक की करना चाहते हैं. अपने कुतर्कों से ये इस बात को बार बार टाल देते हैं. क्यों नहीं ये लोग चुनाव जीतकर अपनी सरकार बनाएँ, जब इनको इतना जन समर्थन है ? सरकार बनाकर काम करके दिखाएँ, किसने रोका है ?
लोकपाल के खिलाफ हम भी नहीं
तो क्या हम लोकपाल के खिलाफ हैं ? इस विवेचन से तो यही लगता होगा ? नहीं. हम लोकपाल के खिलाफ नहीं है. हम इस ड्रामा के खिलाफ हैं. न ही हम ‘सूचना के अधिकार’ के खिलाफ हैं. हम तो यह कह रहे हैं कि ये नए नए हथियार, ये शस्त्र बांटने तक ही काम नहीं रूकना चाहिए. आगे इनका इस्तेमाल करना सिखाने की जिम्मेदारी भी इनके आविष्कारकों की है. और वह यह काम नहीं कर रहे हैं. अरुणा रॉय ने कहा था कि आप देश के किसी भी सरकारी कार्यालय से सूचना मांग सकते हो. क्या उन्होंने पिछले दशक में कोई ‘बड़ी’ सूचना मांग कर दिखाई है ? बल्कि वे तो स्वयं सोनिया गांधी की सलाहकार के पद पर जाकर बैठ गयी हैं. उनके नाक के नीचे कितनी गडबड देश ने देखी है. वे कहती हैं कि मैंने तो अधिकार दिला दिया है, मेरा काम पूरा. अब जनता इस्तेमाल नहीं करती है, तो वह क्या करें. कमाल है. देश की जनता को आप भी दूसरों की तरह झुनझुना पकड़ा कर चल दिए. सूचना के अधिकार के प्रयोग करने के चक्कर में कि एक वर्ष में पन्द्रह लोगों ने जान गंवाई है. क्यों नहीं अरुणा ने या अरविन्द ने उनके परिवारों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष किया ?
अब जब ‘लोकपाल’ आ जाएगा तो उसके पास शिकायत करने कौन जाएगा ? क्या  देश का कोई साधारण नागरिक यह कर पायेगा ?  बड़े लोगों की शिकायत क्या इतनी आसान है ? सूचना के अधिकार का प्रयोग जो लोग अपने गांव या शहर में करने से डरते है, वे लोग दिल्ली की बिल्लियों के गले में घंटी बाँध पायेंगे क्या ? या फिर क्या राजनैतिक दलों के कार्यकर्ता यह काम करेंगे ? अभी तो वे यह नहीं कर रहे हैं. सूचना के अधिकार का भी तो वे प्रयोग कहाँ कर रहे हैं. इसलिए हमारी चिंता यह है कि ‘लोकपाल’ की संस्था का उपयोग करना अन्ना -अरविन्द-बेदी-भूषण बंधू करके बताएँगे या वे भी अरुणा रॉय की तरह किसी हस्ती के सलाहकार बन जायेंगे ? या कॉंग्रेस के खिलाफ प्रचार करने के नाम पर किसी भजनलाल के ‘ईमानदार’ बेटे को जिताएंगे. यह मूल विषय है. इसे इस दृष्टि से समझें.
हम अरुणा-अन्ना-बाबा-अरविन्द के संघर्षों का सम्मान करते हैं. कि चलो उन्होंने हिम्मत तो की . घर से बाहर तो आये, माहौल बनाने का तरीका तो बताया. इसके लिए उनकी तारीफ़ होनी चाहिए. उनके प्रस्तुतिकरण की तारीफ़ होनी चाहिए. उनकी ईमानदारी ( केवल रिश्वत नहीं लेने वाली !) पर हमें नाज होना चाहिए. परन्तु उनको अवतार मानकर उनकी हर बात का समर्थन करने की गलती नहीं करनी चाहिए. इससे नुकसान हो जाएगा. बल्कि हमारा तो यह मानना है कि जनता में जाग्रति लाओ. जनता की हिम्मत बढाओ. समाज को इन अधिकारों का प्रयोग सिखाओ. जैसा हम ‘अभिनव राजस्थान’ अभियान में करने वाले हैं. हम ‘सूचना के अधिकार’ का, ‘वोट के अधिकार’ का प्रयोग करके बताना चाह रहे हैं. हम बुद्धिजीवियों की तरह मात्र आलोचना से काम नहीं चलाएंगे. कि हम तो बाहर नहीं निकले और जो निकले उनमें कमियां ढूँढते फिरें !
            दूसरी तरफ हम यह भी कहते हैं कि समाज में पद के , धन के मूल्य को कम करो. सादगी, कला और ज्ञान का सम्मान बढाओ. अगर हम ऐसा कर पाए तो फिर लोकपाल की जरूरत नहीं रहेगी. जागृत और समर्पित जनता ही देश की गली-गली में लोकपाल बन कर खड़ी मिलेगी. ऐसी जनता से निकले अधिकारी-कर्मचारी अपने कर्त्तव्यों के प्रति समर्पित होंगे. तब सी बी आई के बजाय हमारे थाने का एक कानिस्टेबल ही किसी भ्रष्ट अधिकारी या मंत्री के लिए काफी होगा ! यही स्थाई हल है.
क्या हमें अन्ना-केजरीवाल-बेदी-बाबा की ईमानदारी पर शक है ? तो छोडिये इस बात को अभी. हाँ उनकी नीयत पर शक हो जाता है, उनकी भाव भंगिमा देखकर, उनकी भाषा को सुनकर. कभी कहते हैं कि सारे सांसद गुंडे हैं, चोर हैं. कभी कहते हैं कि वे संसद का सम्मान करते हैं, आडवाणी का सम्मान करते हैं, संसद से विनम्र अपील करते हैं. उस पर ये भी नेताओं की तरह हवाई जहाज से नीचे नहीं उतरते हैं. आम आदमी की तरह रेल में सफर करना इन्हें शान के, स्टेटस के खिलाफ लगता है. इनके वे सब लटके झटके हैं जो नेताओं के हैं.
किसी का साधू होना, कंवारा होना, रिश्वत न लेना ही आपको दूसरों को चोर कहने का और खुद को भगवान का अवतार कहने का अधिकार नहीं देता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि आप दूध के धुले हो गए और बाकी सब दागदार. आपके चेहरे से प्रेम भरा, गंभीर नेतृत्व झलकना चाहिए, घृणा नहीं. आपका भी आचरण सही होना चाहिए. दोहरा दें कि रिश्वत से भी अधिक भ्रष्ट आचरण हुआ करते हैं. केवल उसी पर जोर देकर अपने आपको सुरक्षित मत करिये. ये सफ़ेद पोश चोरों से जो चंदा आ रहा है, विदेशी संस्थाओं से जो भारत में ‘जनजागरण’ (या अशांति ?) के लिए पैसा आ रहा है, वह भी भ्रष्टाचार है. आपके अहंकार से जुड़े किसी मुद्दे को लेकर आप पूरे देश को मूर्ख साबित मत करिये . यह बात ध्यान रखिये.
कुछ याद उन्हें भी कर लो
अंत में आपको लोकपाल और अन्ना-बाबा के बारे में अपनी धारणा टूटने का दर्द न हो, इसके लिए एक दवा देते चलें. इतिहास के दो तथ्यों की दवा. दो उदहारण देश के नेतृत्त्व के. पहला सच्चा नेतृत्व आजादी के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने देश को दिया था. देश में अन्न की कमी पर उनके उपवास करने के आग्रह पर देश की गली गली में लोगों ने उपवास किये थे. बिना मीडिया में फोटो छपाए. सादगी की उस मूर्ति के लिए उपवास रोज की आदत थी, कोई तमाशा करने का विषय नहीं था. उनके जय जवान, जय किसान  के नारे ने देश का आत्मविश्वास बढ़ा दिया था, स्वाभिमान बढ़ा दिया था.
फिर जय प्रकाश नारायण ने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का नारा देकर देश को तानाशाही से छुटकारा दिलाया था. रामलीला मैदान में उनकी आवाज पर इकट्ठे जवानों की विशाल रैली ने सरकार की जड़ें हिला दी थी. सरकार भी इंदिरा गांधी की, जिसे देश की भोली जनता कुछ साल पहले तक ‘दुर्गा का अवतार कहती’ थी और जिसकी कूटनीति और दुस्साहस से अमेरिका भी परेशान था. पर जे पी के जवान भी किसी योग शिविर के लिए वहां नहीं गए थे, व्यवस्था परिवर्तन के लिए गए थे और उनके मस्तिष्क में वैचारिक उथल पुथल भी खूब थी. जेलें तो उन लोगों ने भुक्ती थीं, जेलें तो उन्होंने भरी थीं. उनके लिए जेल जाना, अनशन या धरने पर पिकनिक के भाव से जाना कतई नहीं था.

शास्त्री और जे पी के पास कोई ब्रांड नहीं थे, उनके पास जज्बा था. उनके पास व्यवस्था परिवर्तन का पूरा कार्यक्रम था, कोई एक स्टंट नहीं था. उनको पूरी सफलता नहीं मिली, वे उनके ‘अपनों’ से ही धोखा खा गए थे. पर वे हमारे लिए एक अनुकरणीय पहल छोड़ गए हैं. एक रास्ता बना गए हैं. उस पर हमें चलना है. उस रास्ते की धुल  को हटाना ही ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ की रणनीति है. पगडंडियों से काम नहीं चलेगा. शास्त्री और जे पी की तुलना ? प्लीज उनकी तुलना किसी से नहीं करें ? उन देशभक्तों का अपमान न करें.  जय हिंद. 

About Dr.Ashok Choudhary

नाम : डॉ. अशोक चौधरी पता : सी-14, गाँधी नगर, मेडता सिटी , जिला – नागौर (राजस्थान) फोन नम्बर : +91-94141-18995 ईमेल : ashokakeli@gmail.com

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