अजमेर

इतिहास

अरावली की गोद में बसे अजमेर पर प्राचीन समय में मेरों का शासन था , जिन्हें हम वर्तमान में रावतों के नाम से जानते हैं। इस कारण से इस क्षेत्र को लोक भाषा में अजमेर-मेरवाड़ा भी कहा जाता रहा है। आगे दक्षिण में भीलों का शासन था, तो उत्तर में मीणों का शासन था। अरावली के पूर्व में मैदानों में परमारों का शासन था, तो पश्चिम की तरफ के भागों में परिहारों का शासन हुआ करता था। लेकिन आठवीं शताब्दी में परिहारों के सहयोगी संभार के चौहानों ने इस क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया था और वे लम्बे चौड़े क्षेत्र में पसर गए थे। वर्तमान नागौर, चुरू, सीकर और झुंझुनूं तक फैले। उनके शासन को बाद में चाटुकारों ने “सपाद्लाक्ष”  यानी सवा लाख गांवों का शासन तक कह डाला था। इसे ‘अनंत गोचर ‘ भी कहा गया , क्योंकि गायों को चराने के लिए यह भू भाग अनुकूल था। वीरान जमीन के कारण इसे ‘जांगल प्रदेश‘ भी  कहा गया था। नागवंशी होने के कारण कभी संभार के बाद इनकी नयी राजधानी को ‘अहिछत्रपुर‘ (वर्तमान नागौर) भी कहते थे। अहि, नाग का ही पर्यायवाची शब्द है। यह नागवंशी  शिव के भक्त थे और उनके द्वारा स्थापित शिव मंदिर जगह जगह इस क्षेत्र में मिलते हैं। पुष्कर झील के बीचोबीच स्थित मंदिर इनमें प्रमुख है.
लेकिन 11 वीं शताब्दी में पश्चिम से आ रहे मुसलिम आक्रमणकारियों के कारण चौहानों ने अरावली की पहाड़ियों में सुरक्षित स्थान ढूंढ लिया और अजयपाल द्वितीय ( 1108-1132) ने स्थानीय मेरों के  सहयोग से 1123 ई. में अजयमेरु (अजय+मेर) की स्थापना कर दी। यहीं से चौहानों ने भारत की सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने का निर्णायक कदम भर लिया था। अर्नोराज (1132-51) ने अजमेर के पास पहुँच चुके तुर्कों को बुरी तरह से हराया और युद्ध स्थल पर चंद्रा नदी के पानी को मोड़कर आनासागर झील का निर्माण करवा दिया. इस समय चौहानों के शासन के पूर्व में परमार और दक्षिण में सोलंकी शासन थे, जिनसे उनके सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहे। बीसलदेव (1151-1164) या विग्रहराज चतुर्थ, संभवतः चौहानों के सबसे शक्तिशाली थे, जिन्होंने चौहान शासन को दिल्ली पर स्थापित कर दिया था। उन्होंने पूर्व में परमारों से भी काफी बड़ा क्षेत्र छीन लिया था, जिसके प्रमाण बिसोलिया (बिजोलिया) तक मिल जाते हैं। इधर दक्षिण में चौहान अरावली के सहारे-सहारे गोरवार पर भी कब्जा कर चुके थे और नाडोल (पाली) को प्रमुख केंद्र बना चुके थे। उधर उत्तर में दिल्ली के तोमरों ने भी हार मान ली थी। यह चौहानों के शासन का चरम था.
पृथ्वीराज तृतीय (1177-1192) या ‘रायपिथोरा’ इस विशाल साम्राज्य को नहीं संभल पाए। दरबारी चाटुकारों और ऐश-मौज  के चक्कर में पृथ्वीराज ऐसे चढ़े कि भारत में मुसलिम सत्ता की स्थापना करवा बैठे। 1191 की तराइन  की जीत का उन पर ऐसा नशा चढ़ा कि वे स्थानीय शासकों को अपने अहंकार और हरकतों से नाराज कर बैठे। संयोगिता का अपहरण ऐसी ही बचकानी घटना थी, जिसने 1192 में तराइन  में पासा उलट दिया. दिल्ली  पर मुहम्मद गौरी का शासन स्थापित हो गया और अजमेर भी गौर के सुल्तान के अधीन हो गया। भारत पर राज करने के लिए के गौरी ने अपने एक गुलाम कुतुब्बुद्दीन ऐबक को चुना। स्वर्णिम भारत एक गुलाम का गुलाम हो गया। गुलामी का वह ऐसा दौर शुरू हुआ, कि जिससे हम आज तक नहीं उबर पाए हैं।
सल्तनत के बाद कुछ समय तक यहाँ पर राजस्थान की नयी ताकत गहलोतों का शासन रहा था। संग के पुत्र पृथ्वीराज सिसोदिया ने भी अपने पूर्ववर्ती  पृथ्वीराज चौहान कि तरह यहाँ खूब ऐश मौज की और अजयमेरु दुर्ग के नीचे ‘पृथ्वीपुर‘ नगर बसा दिया, जिसे अभी अजमेर शहर  कहा जाता है। इस ‘उड़ना पृथ्वीराज’ ने  अजयमेरु दुर्ग का नाम भी अपनी खूबसूरत सोलंकी पत्नी तारा के नाम पर ‘तारागढ़’ रख दिया. बाद में मेवाड़ कमजोर हुआ तो मारवाड़ के मालदेव और उनके हार जाने पर शेरशाह यहाँ के शासक बने। इसके बाद मुगल यहाँ आये, तो अँगरेज राज आने तक जमे रहे, सुल्तानों ने अजमेर में तोड़फोड़ ज्यादा की तो मुग़लों ने निर्माण पर भी ध्यान दिया। इस समय तक ख्वाजा साहिब की प्रसिद्धि फैल चुकी थी और उनकी दरगाह में कई संरचनाएं बन कर खड़ी हो चुकी थीं। अकबर का किला और आनासागर पर शाहजहाँ की बारह्दरियां भी इस काल में बनीं, जो आज भी मुग़लों की यादें ताजा करती हैं। जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी अपनी ऐश मौज से पृथ्वीराजों के दौर में  अजमेर को फिर लौटा दिया। लेकिन इन शहजादों और उनके बाप अकबर को किसी संयोगिता का अपहरण नहीं करना पड़ा, बल्कि संयोगिताएँ खुद डोलों में बैठा कर उन तक पहुँचा दी गयीं !
मुग़लों के पतन के दौर में उभरे मराठों (सिंधियाओं) ने भी 1756 से 1818 तक अजमेर पर राज कर लिया। 1818 में अंग्रेजों ने मराठों से समझौता कर अजमेर ले लिया। इसी अजमेर में अंग्रेज राजदूत टॉमस रो ने कभी (1616) जहाँगीर से भारत के साथ व्यापार करने की इजाज़त मांगी थी और ठीक दो सौ वर्ष बाद ये व्यापारी यहाँ के शासक बन गए थे! अजमेर की राजस्थान के मध्य में स्थिति का सामरिक महत्व चौहानों. सुल्तानों और मुग़लों के बाद अंग्रेजों ने भी मान रखा था। अजमेर राजस्थान पर कंपनी के नियंत्रण का केंद्र बन गया। 1823 तक राजस्थान के सभी शासक अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर चुके थे। इन गुलामों को उनका स्थान बताने के ही लिए 1832 में अजमेर में दरबार लगाया गया था। भारत के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक इस दरबार में उसी रूप में बैठे थे, जैसे कभी मुग़ल बादशाह बैठते थे. सभी राजे-महाराजे, गाजे-बाजे से उन्हें अब ‘सलाम’ की जगह ‘सैल्यूट’ करने में एक दूसरे को पछाड़ने में लगे थे! पोशाकें भी इतिहास ने ऐसी बदलीं कि मुग़लों के कुरते पायजामे स्थानीय शासकों ने पहन रखे थे और नए शासकों ने कोट पेंट पहन रखे  थे ! ‘गुलामी के गर्व’ में महान् भारत के धोती- कमीज दरबारों से गायब हो गए !   1832 में राजस्थान को एक अंग्रेज एजेंसी बना कर इसके नियंत्रण के लिए एक ए. जी. जी. की नियुक्ति कर दी गयी और उनका कार्यालय अजमेर कर दिया गया, जो 1856 तक रहा. 1856 में ए.जी.जी. का कार्यालय माउंट आबू चला गया। शायद इसी कारण से 1857 में अजमेर के पास ही नसीराबाद छावनी में राजस्थानी विद्रोह शुरू हुआ था. विद्रोह की समाप्ति के कुछ वर्षों बाद 1870 में फिर अजमेर में दरबार लगा कर अंग्रेजों ने स्थानीय जनता को असली शासक के बारे में बताना उचित समझा। मेयो इस बार मंचासीन थे।
बरसों की शांति के बाद 1914-15 में अजमेर में भी सशस्त्र क्रांति की संभावनाएं बनी। भूप सिंह (विजय सिंह पथिक), गोपाल सिंह खर्रा , अर्जुन लाल सेठी और बारहट बंधुओं  (पिता केसरी सिंह, चाचा जोरावर सिंह और प्रताप सिंह ) जैसे महान् देशभक्तों की  इस धरती पर उपस्थिति ने गुलामों के दरबारों के पाप धो दिए।  हालाँकि क्रांति सफल नहीं रही, परन्तु अजमेर स्वतंत्रता के आंदोलन का राजस्थान में प्रमुख केंद्र बना रहा। विजय सिंह पथिक और उनके साथियों ने बिजोलिया व अन्य किसान आंदोलनों के साथ ही आजादी के आंदोलन को और गति देने के लिए यहीं पर राजस्थान सेवा संघ का कार्यालय 1920 में स्थापित कर दिया था. राजस्थान केसरी और बाद में नवीन राजस्थान जैसे अखबारों से सज्जित राजस्थान सेवा संघ वस्तुतः राजस्थान की नींव का पत्थर बन गया था।  समूचे प्रदेश में सेवा संघ का प्रभाव पद रहा था। लेकिन यह सब जमनालाल बजाज और उनके शागिर्द हरिभाऊ उपाध्याय से नहीं पचा और उन्होंने साज़िश के तहत बिजोलिया आंदोलन से पथिक जी को बाहर करवा दिया। इस साज़िश में उन्होंने अंग्रेजों और मेवाड़ शासन का भी सहयोग लिया था। राजस्थान सेवा संघ को पथिक जी  ने गुस्से में भंग कर दिया। सेवा संघ का भंग होना राजस्थान में आज़ादी के आंदोलन को बहुत बड़ा धक्का था। एक-एक कर प्रदेश में सच्चे देश भक्त किनारे होते गए, जैसे राष्ट्रीय स्तर पर सुभाष बोस हो गए थे. उपेक्षा के इस दौर में ही 1941 में पहले केसरी सिंह बारहट और फिर अर्जुन लाल सेठी जैसे महान् नेता चल बसे। पथिक जी शायद और जिल्लत देखने के लिए बचे थे और आज़ाद राजस्थान में कांग्रेस का टिकट न मिलने पर निर्दलीय लड़ कर हार बैठे। 1954 में विजय सिंह पथिक जैसे अद्भुत व्यक्तित्व से भी हम महरूम हो गए। पथिक जी राजस्थान के सुभाष ही थे। वे भी राजस्थान में जीते जी अंग्रेजों के शंकर वंशजों को राज में आता देख कर गए। मुहम्मद गौरी ने 13 वीं शताब्दी में अपने गुलाम कुतुब्बुद्दीन ऐबक को भारत का शासन सौंपा था, तो अंग्रेजों ने भी 1947 में अपने गुलामों को शासन की बागडोर सौंप दी, ताकि वे उनके प्रति वफ़ादार बने रहें।
 1947 में अजमेर-मेरवाडा को सी श्रेणी का राज्य बनाया गया था हरिभाऊ उपाध्याय की इच्छा पूरी हुई और वे अजमेर के प्रधान मंत्री बन ही गए। बाल कृष्ण कौल ओर मुकुट बिहारीलाल भार्गव भी मंत्री बन गए। सत्ता का ऐसा चस्का इन सभी को लगा कि इन लोगों ने अजमेर के इतिहास की दुहाई देकर अलग ही राज्य बनाये रखने की जिद पर अड़े रहे। कैसा इतिहास? केवल सुल्तानों, मुग़लों, और अंग्रेजों की गुलामी का इतिहास, जो याद दिलाता रहे कि हम 1192 से लेकर  1947 ( लगभग 750 वर्ष ) तक कैसे सलाम और सेल्यूट मारते रहे लेकिन अजमेर की जनता गुलामी के दाग धोने के मूड में थी। जनता ने अपना निर्णय राजस्थान में विलय के पक्ष में दिया और इस दबाव के आगे हरिभाऊ, कौल, भार्गव आदि नेताओं के मंसूबों पर पानी फिर गया। 1 नवंबर 1956 को अजमेर भी राजस्थान का अभिन्न अंग बन गया।
और चौहान कहाँ गए ? उनके वंशज नहीं बचे क्या ? सभी तराइन की लड़ाई में मारे गए क्या ? इन प्रश्नों का भी उत्तर जरूरी है. इतिहास के इस निक्कमे पहलू को भी ठीक करना आवश्यक है। दरअसल राज से बाहर होने पर चौहानों के पास तीन  ही विकल्प बचे थे या तो मुसलमान बन जाओ या क्षत्रिय कर्म को त्याग दो या फिर सुल्तान के अधीन काम करो। कुछ समूहों ने सुल्तान के अधीन रह कर भी राज से चिपके रहना ठीक समझा। इन चौहानों में से ही जालोर के कान्हड़ देव और रणथम्भोर के हम्मीर निकले , जिन्होंने वीरता की आखिरी मिसालें भारत में पेश की थीं। कुछ चौहान मुसलमान बन भी गए और आज भी अपने नाम के पीछे गर्व से ‘चौहान’ लिखते भी हैं। अन्य लोगों ने तलवार फेंक दी और हाथों में लाठी, कुल्हाड़ी, सुई, हल, आदि थम लिए और 24 समूहों में बंट गए। आज इन चौहानों को हम गुर्जर, मीणा, जाट, माली, रावत, दरजी, खाती, सुनार, हरिजन आदि जातियों के नाम से जानते हैं। इन जातियों के अपने इतिहासकार-भाट, जरगा, राव आदि सदियों से यह बातें गाँव-गाँव में पढ़ कर सुनते हैं, लेकिन दरबारी चाटुकारों की आवाज़ों के बीच इनकी बातें सुनी नहीं गयी  और अभी भी यही हाल है।

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4 comments

  1. varsha choudhary

    आपका बहुत धन्यवाद , अजमेर के इतिहास की व्याख्या करने के लिए व बचे हुए चौहान वंश की जानकारी देने के लिए।

  2. varsha choudhary

    Sir thanks for describing ajmer’s history in a very clear manner.

  3. ,गजब की व्याख्या की है आपने| बिल्कुल निर्भय होकर | खास¡ इसी निर्भयता से भारत का इतिहास लिखा जाता |

  4. Thanks sir… For ajmer’s history

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